प्रताप नारायण मिश्र ने 'हिन्दी-हिन्दू-हिन्दुस्तान' का नारा दिया।
हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने का विचार सर्वप्रथम बंगाल में उदित हुआ।
कांग्रेस के फैजपुर अधिनेशन (1936 ई०) एवं हरिपुरा अधिवेशन (1938 ई०) में कांग्रेस के विराट मण्डप में 'राष्ट्रभाषा सम्मेलन' आयोजित किये गये,
जिनकी अध्यक्षता राजेन्द्र प्रसाद (फैजपुर) एवं जमना लाल बजाज (हरिपुरा) ने की।
संविधान सभा में हिन्दी को राजभाषा बनाने का प्रस्ताव गोपाल स्वामी आयंगर ने रखा जिसका समर्थन शंकरराव देव ने किया।
संविधान सभा में राजभाषा के नाम पर हुए मतदान में हिन्दुस्तानी को 77 वोट तथा हिन्दी को 78 वोट मिले।
आजादी-पूर्व हिन्दी का समर्थन करनेवाले व आजादी-बाद हिन्दी का विरोध करने वाले व्यक्तित्व -सी० राजगोपालाचारी, सुनीति कुमार चटर्जी, हुमायूं कबीर, अनंत शयनम अय्यंगार आदि।
'मैं कभी भी हिन्दी का विरोधी नहीं हूँ। मैं उन हिन्दी वालों का विरोध करता हूँ जो वस्तुस्थिति को नहीं समझकर अपने स्वार्थ के कारण हिन्दी को लादने
की बात सोचते हैं।' -सी राजगोपालाचारी
'हिन्दी अहिन्दी लोगों के लिए ठीक उतनी ही विदेशी है जितनी कि हिन्दी समर्थकों के लिए अंग्रेजी।' -सी राजगोपालाचारी
'हिन्दी-हिन्दू-हिन्दुस्तान' वाले राष्ट्रबाद की सबसे बड़ी सीमा यह है कि यह समूचे दक्षिण भारत को भूल जाता है।
-इरोड वेंकट रामास्वामी (ई० वी० आर०)'पेरियार'
1952 में एक विख्यात स्वतंत्रता सेनानी पोट्टी श्रीरामालु ने तेलगु भाषी लोगों के लिए एक पृथक राज्य आंध्र प्रदेश ने तेलगु भाषी लोगों के
लिए एक पृथक राज्य आंध्र प्रदेश बनाने की मांग पर आमरण अनशन करते हुए 58 दिन बाद (19 अक्तू, 16 दिसम्बर) को अपनी जान दे दी।
इसके बाद भाषाई आधार पर राज्यों के गठन की मुहिम में तेजी आई।
पंजाब, महाराष्ट्र और गुजरात राज्य अपने शासन में क्रमशः पंजाबी, मराठी और गुजराती भाषा के साथ-साथ हिन्दी को 'सहभाषा' के रूप में घोषित कर रखा है।
हिन्दी की उपभाषाएँ एवं बोलियाँ
हिन्दी भाषी क्षेत्र/ हिन्दी क्षेत्र/ हिन्दी पट्टी (Hindi Belt) : हिन्दी पश्चिम में अम्बाला (हरियाणा) से लेकर पूर्व में पूर्णिया (बिहार)
तक तथा उत्तर में बद्रीनाथ-केदारनाथ (उत्तराखंड) से लेकर दक्षिण में खंडवा (मध्य प्रदेश) तक बोली जाती है। इसे हिन्दी भाषी क्षेत्र या
हिन्दी क्षेत्र के नाम से जाना जाता है। इस क्षेत्र के अन्तर्गत 9 राज्य-उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़,
राजस्थान, हरियाणा व हिमाचल प्रदेश-तथा 1 केन्द्र शासित प्रदेश (राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र)- दिल्ली-आते हैं। इस क्षेत्र में भारत की कुल जनसंख्या के 43% लोग रहते हैं।
हिन्दी की उपभाषाएँ व बोलियाँ
बोली : एक छोटे क्षेत्र में बोली जानेवाली भाषा बोली कहलाती है। बोली में साहित्य रचना नहीं होती।
उपभाषा : अगर किसी बोली में साहित्य रचना होने लगती है और क्षेत्र का विस्तार हो जाता है तो वह बोली न रहकर उपभाषा बन जाती है।
भाषा : साहित्यकार जब उस उपभाषा को अपने साहित्य के द्वारा परिनिष्ठित सर्वमान्य रूप प्रदान कर देते हैं तथा उसका और क्षेत्र विस्तार हो जाता है तो
वह भाषा कहलाने लगती है।
एक भाषा के अंतर्गत कई उपभाषाएँ होती हैं तथा एक उपभाषा के अन्तर्गत कई बोलियाँ होती हैं।
सर्वप्रथम एक अंग्रेज प्रशासनिक अधिकारी जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने 1889 ई० में 'मार्डन वर्नाक्यूलर लिटरेचर ऑफ हिन्दोस्तान' में हिन्दी का उपभाषाओं व बोलियों
में वर्गीकरण प्रस्तुत किया। बाद में ग्रियर्सन ने 1894 ई० से भारत का भाषाई सर्वेक्षण आरंभ किया जो 1927 ई० में संपन्न हुआ। उनके द्वारा संपादित ग्रंथ का नाम है-
'ए लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इण्डिया' । इसमें उन्होंने हिन्दी क्षेत्र की बोलियों को पाँच उपभाषाओं में बाँटकर उनकी व्याकरणिक एवं शाब्दिक विशेषताओं का
विस्तार से विवरण प्रस्तुत किया है।
इसके बाद, 1926 ई० में सुनीति कुमार चटर्जी ने 'बांग्ला भाषा का उद्भव और विकास (Origin and Development of Bengali Language')
में हिन्दी का उपभाषाओं व बोलियों में वर्गीकरण प्रस्तुत किया। चटर्जी ने पहाड़ी भाषाओं को छोड़ दिया है। वे उन्हें भाषाएँ नहीं गिनते।
धीरेन्द्र वर्मा ('हिन्दी भाषा का इतिहास', 1933 ई०) का वर्गीकरण मुख्यतः सुनीति कुमार चटर्जी के वर्गीकरण पर ही आधारित है, केवल उसमें कुछ संशोधन
किये गये हैं जैसे उसमें पहाड़ी भाषाओं को शामिल किया गया है।
इनके अलावे, कई विद्वानों ने अपना वर्गीकरण प्रस्तुत किया है। आज इस बात को लेकर आम सहमति है कि हिन्दी जिस भाषा-समूह का नाम है,
उसमें 5 उपभाषाएँ और 17 बोलियाँ हैं।
हिन्दी क्षेत्र की समस्त बोलियों को 5 वर्गो में बाँटा गया है। इन वर्गों को उपभाषा कहा जाता है। इन उपभाषाओं के अंतर्गत ही हिन्दी की 17 बोलियाँ आती हैं।
कौरवी या खड़ी बोली बाँगरू या हरियाणवी ब्रजभाषा बुंदेली कन्नौजी
हरियाणा, उत्तर प्रदेश
पूर्वी हिन्दी
अवधी बघेली छत्तीसगढ़
मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश
बिहारी
भोजपुरी मगही मैथली
बिहार उत्तर प्रदेश
पहाड़ी
कुमाऊँनी गढ़वाली
उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश
नोट : एक भाषा विद्वान के अनुसार, शुद्ध भाषा-वैज्ञानिक दृष्टि से हिन्दी की दो मुख्य उपभाषाएँ हैं- पश्चिमी हिन्दी व पूर्वी हिन्दी।
बोली, विभाषा एवं भाषा
विभिन्न बोलियां राजनीतिक-सांस्कृतिक आधार पर अपना क्षेत्र बढ़ा सकती है और साहित्य रचना के आधार पर वे अपना स्थान 'बोली' से
उच्च करते हुए 'विभाषा' तक पहुँच सकती है।
विभाषा का क्षेत्र बोली की अपेक्षा अधिक विस्तृत होती है। यह एक प्रांत या उपप्रांत में प्रचलित होती है। इसमें साहित्यिक रचनाएँ भी प्राप्त होती हैं।
जैसे- हिन्दी की विभाषाएँ हैं- ब्रजभाषा, अवधी, खड़ी बोली, भोजपुरी व मैथली।
विभाषा स्तर पर प्रचलित होने पर ही राजनीतिक, साहित्यिक या सांस्कृतिक गौरव के कारण भाषा का स्थान प्राप्त कर लेती है,
जैसे- खड़ी बोली मेरठ, बिजनौर आदि की विभाषा होते हुए भी राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृत होने के कारण राष्ट्रभाषा के पद पर अधिष्ठित हुई है।
इस प्रकार, दो बातें स्पष्ट होती है- (i)बोली का विकास विभाषा में और विभाषा का विकास भाषा में होता है।
बोली-विभाषा-भाषा
(ii) उदाहरण भाषा- खड़ी बोली हिन्दी विभाषा- हिन्दी क्षेत्र की प्रमुख बोलियाँ- ब्रजभाषा, अवधी, खड़ी बोली, भोजपुरी व मैथली बोली- हिन्दी क्षेत्र की शेष बोलियाँ
प्रमुख बोलियों का संक्षिप्त परिचय
कौरवी या खड़ी बोली
मूल नाम- कौरवी
साहित्यिक भाषा बनने के बाद पड़ा नाम- खड़ी बोली
अन्य नाम- बोलचाल की हिन्दुस्तानी, सरहिन्दी, वर्नाक्यूलर खड़ी बोली आदि।
केन्द्र- कुरु जनपद अर्थात मेरठ-दिल्ली के आस-पास का क्षेत्र। खड़ी बोली एक बड़े भू-भाग में बोली जाती है। अपने ठेठ रूप में यह मेरठ,
बिजनौर, मुरादाबाद, रामपुर, सहारनपुर, देहरादून और अम्बाला जिलों में बोली जाती है। इनमें मेरठ की खड़ी बोली आदर्श और मानक मानी जाती है।
बोलने वालों की संख्या- 1.5 से 2 करोड़
साहित्य- मूल कौरवी में लोक-साहित्य उपलब्ध है जिसमें गीत, गीत नाटक, लोक कथा, गप्प, पहेली आदि है।
विशेषता- आज की हिन्दी मूलतः कौरवी पर ही आधारित है। दूसरे शब्दों में, हिन्दी भाषा का मूलाधार/मूलोद्गम
(Substratum या Basic dialect) कौरवी या खड़ी बोली है।
नमूना- कोई बादसा था। साब उसके दो रानियाँ थीं। वो एक रोज अपनी रानी से केने लगा मेरे समान ओर कोई बादसा है बी ? तो बड़ी बोले कि
राजा तुम समान ओर कौन होगा। छोटी से पुच्छा तो किहया कि एक बिजान सहर है उसके किल्ले में जितनी तुम्हारी सारी हैसियत है
उतनी एक ईट लगी है ओ इसने मेरी कुच बात नई रक्खी इसको तग्मार्ती (निर्वासित) करना चाहिए। उस्कू तग्मार्ती कर दिया। और बड़ी कू सब राज का मालक
कर दिया।
ब्रजभाषा
केन्द्र- मथुरा
प्रयोग क्षेत्र- मथुरा, आगरा, अलीगढ़, धौलपुरी, मैनपुरी, एटा, बदायूं, बरेली तथा आस-पास के क्षेत्र
बोलनेवालों की संख्या- 3 करोड़
देश के बाहर ताज्जुबेकिस्तान में ब्रजभाषा बोली जाती है जिसे 'ताज्जुबेकि ब्रजभाषा' कहा जाता है।
साहित्य- कृष्ण भक्ति काव्य की एकमात्र भाषा, लगभग सारा रीतिकालीन साहित्य। साहित्यिक दृष्टि से हिन्दी भाषा की सबसे महत्वपूर्ण बोली।
साहित्यिक महत्व के कारण ही इसे ब्रजभाषा नहीं ब्रजभाषा की संज्ञा दी जाती है। मध्यकाल में इस भाषा ने अखिल भारतीय विस्तार पाया।
बंगाल में इस भाषा से बनी भाषा का नाम 'ब्रज बुलि' पड़ा। असम में ब्रजभाषा 'ब्रजावली' कहलाई । आधुनिक काल तक इस भाषा में
साहित्य सृजन होता रहा। पर परिस्थितियाँ ऐसी बनीं कि ब्रजभाषा साहित्यिक सिंहासन से उतार दी गई और उसका स्थान खड़ी बोली ने ले लिया।
नमूना- एक मथुरा जी के चौबे हे (थे), जो डिल्ली सैहर कौ चलै। गाड़ी वाले बनिया से चौबेजी की भेंट हो गई। तो वे चौबे बोले,
अरे भइया सेठ, कहाँ जायगो। वौ बोलो, महाराजा डिल्ली जाऊंगौ। तो चौबे बोले, भइया हमऊँ बैठाल्लेय। बनिया बोलो, चार रूपा चलिंगे भाड़े के। चौबे बोले,
अच्छा भइया चारी दिंगे।
साहित्य- सूफी काव्य, रामभक्ति काव्य। अवधी में प्रबंध काव्य परंपरा विशेषतः विकसित हुई।
रचनाकार- सूफी कवि : मुल्ला दाउद ('चंदायन'), जायसी ('पद्मावत'), कुत्बन ('मृगावती'), उसमान ('चित्रावली')
रामभक्त कवि : तुलसीदास ('रामचरित मानस')
नमूना- एक गाँव मा एक अहिर रहा। ऊ बड़ा भोंग रहा। सबेरे जब सोय के उठै तो पहले अपने महतारी का चार
टन्नी धमकाय दिये तब कौनो काम करत रहा। बेचारी बहुत पुरनिया रही नाहीं तौ का मजाल रहा केऊ देहिं पै तिरिन छुआय देत।
भोजपुरी
केन्द्र- भोजपुरी (बिहार)
प्रयोग क्षेत्र- बनारस, जौनपुर, मिर्जापुर, गाजीपुर, बलिया, गोरखपुर, देवरिया, आजमगढ़, बस्ती; भोजपुर (आरा), बक्सर,
रोहतास (सासाराम), भभुआ, सारन (छपरा), सिवान, गोपालगंज, पूर्वी चम्पारण, पश्चिमी चम्पारण आदि।
अर्थात उत्तर प्रदेश का पूर्वी एवं बिहार का पश्चिमी भाग।
बोलने वालों की संख्या- 3.5 करोड़ (बोलनेवालों की संख्या की दृष्टि से हिन्दी प्रदेश की बोलियों में सबसे अधिक बोली जानेवाली बोली)
इस बोली का प्रसार भारत के बाहर सूरीनाम, फिजी, मारिशस, गयाना, त्रिनिडाड में है। इस दृष्टि से भोजपुरी अन्तर्राष्ट्रीय महत्व की बोली है।
साहित्य- भोजपुरी में लिखित साहित्य नहीं के बराबर है। मूलतः भोजपुर भाषी साहित्यकार मध्यकाल में ब्रजभाषा व अवधी में
तथा आधुनिक काल में हिन्दी में लेखन करते रहे हैं। लेकिन अब स्थिति में परिवर्तन आ रहा है।
रचनाकार- भिखारी ठाकुर (उपनाम- 'भोजपुरी का शेक्सपियर'- जगदीश चंद्र माथुर द्वारा प्रदत्त।
'अनगढ़ हीरा'- राहुल सांकृत्यायन के शब्दों में।
'भोजपुरी का भारतेन्दु')
सिनेमा- सिनेमा जगत में भोजपुरी ही हिन्दी की वह बोली है जिसमें सबसे अधिक फिल्में बनती हैं।
नमूना- काहे दस-दस पनरह-पनरह हजार के भीड़ होला ई नाटक देखें खातिर। मालूम होतआ कि एही नाटक में पबलिक के रस आवेला।
मैथली
लिपि- तिरहुता व देवनागरी
केन्द्र- मिथिला या विदेह या तिरहुत
प्रयोग क्षेत्र- दरभंगा, मधुबनी, मुजप्फरपुर, पूर्णिया, मुंगेर आदि।
बोलनेवालों की संख्या- 1.5 करोड़
साहित्य- साहित्य की दृष्टि से मैथली बहुत संपन्न है।
रचनाकार- विद्यापति ('पदावली') : यदि ब्रजभाषा को सूरदास ने, अवधी को तुलसीदास ने चरमोत्कर्ष पर पहुँचाया तो
मैथली को विद्यापति ने, हरिमोहन झा (उपन्यास- कन्यादान, द्विरागमन, कहानी संग्रह- एकादशी, 'खट्टर काकाक तरंग'),
नागार्जुन (मैथली में 'यात्री' नाम से लेखन; उपन्यास- पारो, कविता संग्रह- 'कविक स्वप्न', 'पत्रहीन नग्न गाछ'), राजकमल चौधरी ('स्वरगंधा') आदि।
8वीं अनुसूची में स्थान- 92वां संविधान संशोधन अधिनियम, 2003 के द्वारा संविधान की 8वीं अनुसूची में 4
भाषाओं को स्थान दिया गया। मैथली हिन्दी क्षेत्र की बोलियों में से 8वीं अनुसूची में स्थान पानेवाली एकमात्र बोली है।
नमूना-
पटना किए एलऽह ?
पटना एलिअइ नोकरी करैले।
भेटलह नोकरी ?
नोकरी कत्तौ नइ भेटल।
गाँ में काज नइ भेटइ छलऽह ?
भेटै छलै, रुपैयाबला नइ, अऽनबला।
तखन एलऽ किऐ ?
रिनियाँ तड़ केलकइ, ते।
कत्ते रीन छऽह ?
चाइर बीस।
सूद कत्ते लइ छऽह ?
दू पाइ महिनबारी।
हिन्दी का उसकी बोलियों में रूपान्तरण
हिन्दी : किसी मनुष्य के दो पुत्र थे। उनमें से छोटे ने पिता से कहा कि हे पिता अपनी संपत्ति में से जो मेरा अंश होता है सो
मुझे दीजिए। तब उन्होंने उनमें अपनी संपत्ति बाँट दी। कुछ दिन बीते छोटा पुत्र सब कुछ इकट्ठा करके दूर देश चला गया और वहाँ लुच्चेपन में दिन
बिताते हुए उसने अपनी संपत्ति उड़ा दी।
कौरवी या खड़ी बोली : किसी मनुष्य के दो पुत्र थे। उनमें से छुटके ने पिता से कहा कि हे पिता अपनी संपत्ति में से जो मेरा
अंश हो सो मुझे दीजिये। तब उसने उनको अपनी संपत्ति बाँट दी। कुछ दिन बीते छुटका पुत्र सब कुछ इकट्ठा करके दूर देश चला गया और वहाँ लुचपन
में दिन बिताते हुए उसने अपनी संपत्ति उड़ा दी।
बाँगरू या हरियाणवी : एक माणस कै दो छोरे थे। उन मैं तै छोटे छोरे ने बाप्पू तै कह्या अक बाप्पू हो धन का जौण
सा हिस्सा मेरे बाँडे आवै सै मन्नै दे दे। तौ उस ने धन उन्है बाँड दिया। अर थोड़ै दिना पाछै छोट्टा छोरा सब कुछ इकट्ठा कर कै परदेश ने चाल्ल
गया और उड़ै अपणा धन खोट्टे चळण मैं खो दिया।
ब्रजभाषा : एक जने के दो छोरा है। उनमैं-ते लोहरे-ने कही कि काका मेरे बट-कौ धन मोए दे। तब वा-ने धन उन्हैं बटि-करि दियौ।
और थोरे दिना पाछे लोहरे बेटा-ने सिगरौ धन इक ठौरौ करिके दूर देसन कूँ चल्यों और वा जगे अपनौ धन उड़ाय दियौ।
बुंदेली : एक जने के दो कुँवर तै। लौरे ने मालकन तेँ कई कि ऐ जू मौ काँ धन मेँ से जो मोरो हिसा होय सो मिलबै आवै। तब
उनने अपनो धन बाँट दओ। कछु दिनन भयेते कि लौरे कुँवर बोत धन जोर के परदेश जात रये। माँ लूचपन में दिन खोये और अपनो धन उड़ा डारो।
कन्नौजी : एक जने के दोए लड़िका हते। उनमेँ से छोटे ने बाप से कही कि हे पिता मालु को हीसाँ जो हमारी चाहिये सो देओ।
तब उन ने मालु उन्हेँ बाँट दओ। औरू थोरे दिनन पीछे छोटे लड़िका ने सब कुछ इकट्ठा करि के एक दूरि के देस को चलो गओ और हुआँ
अपनी मालु बुरे चलन में उड़ाओ।
अवधी : एक मनई के दुइ बेटवे रहिन। ओह-माँ लहुरा अपने बाप से कहिस दादा धन माँ जवन हमरा बखरा लागत-होय तवन
हम-का दै-द अउर वै आपन धन उन-का बाँट दिहिन। अउर ढेर दिन नाहीं बीता कि लहुरा बेटवा सब धन बटोर-के परदेस चल गय
अउर उहाँ आपन धन कुचाल माँ लुटाय पड़ाय दिहिस।
बघेली : कौनेउ मड़ई के दुइ गद्याल रहैं। उन अपने बाप तन कहिन कि अरे मोरे बाप तैं हमरे हीसन-का माल-टाल हमेँ बाँटि दिहिस।
कुछ दिन बीते छोटे गद्याले आपन सब माल-टाल जमा किहिस और लै-कै बड़ी दूरी विदेसै निकरि गवा। हुन आपन सब रुपया पैसा गुंडई-माँ उठाय डारिस।
छत्तीसगढ़ी : कोनो आदमी-के दू छोकरा रहिस है। वो माँ के सबसे छोटे-हर अपन बाप से कहिस के जोन मोर हिस्सा होय वो-ला दे-दे।
तब वो-हर अपन जायदाद-ला बाँट दिहिस। थोरेक दिन के पिछे छोटे छोकरा-हर आपन सब जायदाद-ला जोर-के दुरिह्या देस चले गइस और
उहां अपन सब जायदाद-ला फूंक दिहिस।
भोजपुरी : कउनी अदिमी के तुइठे लरिका रहुए। उन्हि मैँ छोटका बाबू-जी से कहलसि की ए बाबू जी धन मेँ जे किछ हमार बखरा होइ
से हमरा के बाँट दी। तब उहाँ का आपन धन बाँट दिहली। बहुत दिन ना बीतल की छोटका आपन कुल धन ले के परदेश में चल गउए और
उहाँ लुचई मेँ आपन धन उड़ा दिहलसि
मगही : कोई आदमी के दू बेटा हलइ। ओकर में से छोटका आपन बाप से कहलइ कि ए बाप धन दौलत के जे
हमर बंखरा होव हइ से हमरा दे द। तब ऊ अपन धन-दौलत बाँट देलइ। ढेर दिन नइ बितलइ कि छोटका बेटा सब जमा करलइ अवर दूर देश चल
गेलइ अवर उ हुआँ धन-दौलत लुचइ में उड़ा देलइ।
मैथली : एक केहु आदमी केँ दू लरिका रहै। ओह में से छोटका बाप से कहलक, हो बाबू धन सर्बस मेँ से जे
हम्मर हिस्सा बखरा होय से हमरी के दे द। त ऊ ओकरा केँ अपन धन बाँट देलक। बहुत दिन न भैलैक कि छोटका लरिका सब
किछिओ जमा करके दूर चल गेल और उहां लम्पटै में दिन गमवैत अप्पन सर्बस गमा देलक।
कुमाऊँनी : एक मैसाक द्वि च्याला छया। उनून में नान च्याला ले बाबू थेँ क्यों कि ओ बाबा तुमार धन में जो
मेरो बाँणो को होऔं बो मैकैं दी दिय, तब वीले आपन धन उनून में बाँणि दियो। मनै दिन भ्या कि नान चेलो सब कुछ
बटोलिबेर परदेस न्हैग्यो और वाँ वीले आपनि गठि उड़ै दी।
गढ़वाली : एक क्षण का दूइ नौन्याल थ्या। ऊँ-मा-न-काणसा न अपना बूबा माँ बोले कि हे बूबा बिरसत को
बाँठो जो मेरो छ मैँ दे। तब वै न बिरसत ऊ सणी बाँटी दिने; और भिंडे दिन नि होया काणसा नौन्याल न सब कठो करी क एक दूर
देस चल्ला और अख अपणी रोजी कुकर्म में उडाये।
देवनागरी लिपि
देवनागरी लिपि का विकास
उच्चरित ध्वनि संकेतों की सहायता से भाव या विचार की अभिव्यक्ति 'भाषा' कहलाती है जबकि लिखित वर्ण संकेतों की सहायता
से भाव या विचार की अभिव्यक्ति लिपि। भाषा श्रव्य होती है जबकि लिपि दृश्य।
भारत की सभी लिपियाँ ब्राह्मी लिपि से ही निकली हैं।
ब्राह्मी लिपि का प्रयोग वैदिक आर्यो ने शुरू किया।
ब्राह्मी लिपि का प्राचीनतम नमूना 5वीं सदी BC का है जो कि बौद्धकालीन है।
गुप्तकाल के आरंभ में ब्राह्मी के दो भेद हो गए उत्तरी ब्राह्मी व दक्षिणी ब्राह्मी। दक्षिणी ब्राह्मी से तमिल लिपि/ कलिंग लिपि,
तेलगु-कन्नड़ लिपि, ग्रंथ लिपि (तमिलनाडु), मलयालम लिपि (ग्रंथ लिपि से विकसित) का विकास हुआ।
उत्तर ब्राह्मी से नागरी लिपि का विकास
उत्तर ब्राह्मी (350 ई० तक)-गुप्त लिपि (4वीं-5वीं सदी)-सिद्धमातृका लिपि-कुटिल लिपि- नागरी एवं शारदा
शारदा- गुरुमुखी, कश्मीरी, लहंदा, टाकरी
नागरी लिपि का प्रयोग काल 8वीं-9वीं सदी ई० से आरंभ हुआ। 10वीं से 12वीं सदी के बीच इसी प्राचीन नागरी से उत्तरी भारत की
अधिकांश आधुनिक लिपियों का विकास हुआ। इसकी दो शाखाएँ मिलती हैं पश्चिमी व पूर्वी। पश्चिमी शाखा की सर्वप्रमुख/प्रतिनिधि लिपि देवनागरी लिपि है।
नागरी
(i) पश्चिमी शाखा- देवनागरी, राजस्थानी, गुजराती, महाजनी, कैथी
(ii) पूर्वी शाखा- बांग्ला लिपि, असमी, उड़िया
देवनागरी लिपि का हिन्दी भाषा की अधिकृत लिपि के रूप में विकास
देवनागरी लिपि को हिन्दी भाषा की अधिकृत लिपि बनने में बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा है। अंग्रेजों की भाषा-नीति फारसी की
ओर अधिक झुकी हुई थी इसलिए हिन्दी को भी फारसी लिपि में लिखने का खड्यंत्र किया गया।
जान गिलक्राइस्ट : हिन्दी भाषा और फारसी लिपि का घालमेल फोर्ट विलियम कॉलेज (1800-54) की देन थी।
फोर्ट विलियम कॉलेज के हिन्दुस्तानी विभाग के सर्वप्रथम अध्यक्ष जान गिलक्राइस्ट थे। उनके अनुसार हिन्दुस्तानी की तीन शैलियाँ थीं- दरबारी या फारसी शैली,
हिन्दुस्तानी शैली व हिन्दवी शैली। वे फारसी शैली को दुरूह तथा हिन्दवी शैली को गँवारू मानते थे। इसलिए उन्होंने हिन्दुस्तानी शैली को प्राथमिकता दी।
उन्होंने हिन्दुस्तानी के जिस रूप को बढ़ावा दिया, उसका मूलाधार तो हिन्दी ही था किन्तु उसमें अरबी-फारसी शब्दों की बहुलता थी और वह फारसी
लिपि में लिखी जाती थी। गिलक्राइस्ट ने हिन्दुस्तानी के नाम पर असल में उर्दू का ही प्रचार किया।
विलियम प्राइस : 1823 ई० में हिन्दुस्तानी विभाग के अध्यक्ष के रूप में विलियम प्राइस की नियुक्ति हुई। उन्होंने हिन्दुस्तानी
के नाम पर हिन्दी (नागरी लिपि में लिखित) पर बल दिया। प्राइस ने गिलक्राइस्ट द्वारा जनित भाषा-संबंधी भ्रांति को दूर करने का प्रयास किया।
लेकिन प्राइस के बाद कॉलेज की गतिविधियों में कोई विशेष प्रगति नहीं हुई।
अदालत संबंधी विज्ञप्ति (1837 ई०) : वर्ष 1830 ई० में अंग्रेज कंपनी द्वारा अदालतों में फारसी के साथ-साथ देशी भाषाओं को भी स्थान दिया गया।
वास्तव में, इस विज्ञप्ति का पालन 1837 ई० में ही शुरू हो सका। इसके बाद बंगाल में बांग्ला भाषा और बांग्ला लिपि प्रचलित हुई,
संयुक्त प्रांत (उत्तर प्रदेश), बिहार व मध्य प्रांत (मध्य प्रदेश) में भाषा के रूप में तो हिन्दी का प्रचलन हुआ लेकिन लिपि के मामले में नागरी
लिपि के स्थान पर उर्दू लिपि का प्रचार किया जाने लगा। इसका मुख्य कारण अदालती अमलों की कृपा तो थी ही, साथ ही मुसलमानों ने भी
धार्मिक आधार पर जी-जान से उर्दू का समर्थन किया और हिन्दी को कचहरी से ही नहीं शिक्षा से भी निकाल बाहर करने का आंदोलन चालू किया।
1857 के विद्रोह के बाद हिन्दू-मुसलमानों के पारस्परिक विरोध में ही सरकार अपनी सुरक्षा समझने लगी। अतः भाषा के क्षेत्र में उनकी नीति भेदपूर्ण हो गई।
अंग्रेज विद्वानों के दो दल हो गए। दोनों ओर से पक्ष-विपक्ष में अनेक तर्क-वितर्क प्रस्तुत किए गए। बीम्स साहब उर्दू का और ग्राउस साहब हिन्दी का
समर्थन करनेवालों में प्रमुख थे।
नागरी लिपि और हिन्दी तथा फारसी लिपि और उर्दू का अभिन्न संबंध हो गया था। अतः दोनों से दोनों के पक्ष-विपक्ष में काफी विवाद हुआ।
राजा शिव प्रसाद 'सितारे-हिन्द' का लिपि संबंधी प्रतिवेदन (1868 ई०) : फारसी लिपि के स्थान पर नागरी लिपि
और हिन्दी भाषा के लिए पहला प्रयास राजा शिवप्रसाद का 1868 ई० में उनके लिपि संबंधी प्रतिवेदन 'मेमोरण्डम कोर्ट कैरेक्टर इन
द अपर प्रोविन्स ऑफ इंडिया' से आरंभ हुआ।
जान शोर : एक अंग्रेज अधिकारी फ्रेडरिक जान शोर ने फारसी तथा अंग्रेजी दोनों भाषाओं के प्रयोग पर आपत्ति
व्यक्त की थी और न्यायालय में हिन्दुस्तानी भाषा और देवनागरी लिपि का समर्थन किया था।
बंगाल के गवर्नर ऐशले के आदेश (1870 ई० व 1873 ई०) : वर्ष 1870 ई० में बंगाल के गवर्नर ऐशले ने देवनागरी के
पक्ष में एक आदेश जारी किया जिसमें कहा गया कि फारसी-पूरित उर्दू नहीं लिखी जाए बल्कि ऐसी भाषा लिखी जाए जो एक कुलीन
हिन्दुस्तानी फारसी से पूर्णतया अनभिज्ञ रहने पर भी बोलता है। वर्ष 1873 ई० में बंगाल सरकार ने यह आदेश जारी किया कि पटना,
भागलपुर तथा छोटानागपुर डिविजनों (संभागों) के न्यायालयों व कार्यालयों में सभी विज्ञप्तियाँ तथा घोषणाएं हिन्दी भाषा तथा
देवनागरी लिपि में जारी की जाएं।
वर्ष 1881 ई० तक आते-आते उत्तर प्रदेश के पड़ोसी प्रांतों बिहार, मध्य प्रदेश में नागरी लिपि और हिन्दी प्रयोग
की सरकारी आज्ञा जारी हो गई तो उत्तर प्रदेश में नागरी आंदोलन को बड़ा नैतिक प्रोत्साहन मिला।
गौरी दत्त : व्यक्तिगत रूप से मेरठ के पंडित गौरीदत्त की नागरी प्रचार के लिए की गई सेवाएँ अविस्मरणीय हैं। गौरीदत्त ने 1874 ई०
में अपने संपादकत्व में 'नागरी प्रकाश' नामक पत्र का प्रकाशन आरंभ किया। उन्होंने और भी कई पत्रिकाओं का संपादन
किया- 'देवनागरी गजट' (1888 ई०), 'देवनागर' (1891 ई०), 'देवनागरी प्रचारक' (1892 ई०) आदि।
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र : भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने नागरी आंदोलन को अभूतपूर्व शक्ति प्रदान की और वे इसके प्रतीक और नेता माने जाने लगे।
उन्होंने 1882 में शिक्षा आयोग के प्रश्न-पत्र का जवाब देते हुए कहा : 'सभी सभ्य देशों की अदालतों में उनके नागरिकों की बोली
और लिपि का प्रयोग होता है। यही ऐसा देश है जहाँ न तो अदालती भाषा शासकों की मातृभाषा है और न प्रजा की'।
प्रताप नारायण मिश्र : पंडित प्रताप नारायण मिश्र ने 'हिन्दी हिन्दू-हिन्दुस्तान' का नारा लगाना शुरू किया।
1893 ई० में अंग्रेज सरकार ने भारतीय भाषाओं के लिए रोमन लिपि अपनाने का प्रश्न खड़ा कर दिया। इसकी तीव्र प्रतिक्रिया हुई।
नागरी प्रचारिणी सभा, काशी (स्थापना 1893 ई०) व मदन मोहन मालवीय : नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना-
वर्ष 1893 ई० में नागरी प्रचार एवं हिन्दी भाषा के संवर्द्धन के लिए नागरी प्रचारिणी सभा, काशी की स्थापना की गई। सर्वप्रथम इस सभा ने
कचहरी में नागरी लिपि का प्रवेश कराना ही अपना मुख्य कर्तव्य निश्चित किया। सभा ने 'नागरी कैरेक्टर' नामक एक पुस्तक अंग्रेजी में तैयार की,
जिसमें सभी भारतीय भाषाओं के लिए रोमन लिपि की अनुपयुक्तता पर प्रकाश डाला गया था।
मालवीय के नेतृत्व में 17 सदस्यीय प्रतिनिधि मंडल द्वारा लेफ्टिनेंट, गवर्नर एण्टोनी मैकडानल को याचिका या मेमोरियल देना (1898 ई०)-
मालवीय ने एक स्वतंत्र पुस्तिका 'कोर्ट कैरेक्टर एण्ड प्राइमरी एजुकेशन इन नॉर्थ-वेस्टर्न प्रोविन्सेज' (1897 ई०) लिखी, जिसका बड़ा व्यापक प्रभाव पड़ा।
वर्ष 1898 ई० में प्रांत के तत्कालीन लेफ्टिनेंट गवर्नर के काशी आने पर नागरी प्रचारिणी सभा का एक प्रभावशाली प्रतिनिधि मंडल मालवीय के
नेतृत्व में उनसे मिला और हजारों हस्ताक्षरों से युक्त एक मेमोरियल उन्हें दिया। यह मालवीयजी का ही अथक प्रयास था जिसके परिमाणस्वरूप
अदालतों में नागरी को प्रवेश मिल सका। इसलिए अदालतों में नागरी के प्रवेश का श्रेय मालवीयजी को दिया जाता है।
इन तमाम प्रयत्नों का शुभ परिणाम यह हुआ कि 18 अप्रैल 1900 ई० को गवर्नर साहब ने फारसी के साथ नागरी को भी
अदालतों/कचहरियों में समान अधिकार दे दिया। सरकार का यह प्रस्ताव हिन्दी के स्वाभिमान के लिए सन्तोषप्रद नहीं था। इससे हिन्दी को अधिकारपूर्ण सम्मान
नहीं दिया गया था बल्कि हिन्दी के प्रति दया दिखलाई गई थी। केवल हिन्दी भाषी जनता के लिए सुविधा का प्रबंध किया गया था। फिर भी,
इसे इतना श्रेय तो है ही कि नागरी को कचहरियों में स्थान दिला सका और वह मजबूत आधार प्रदान किया जिसके बल पर वह 20वीं सदी
में राष्ट्रलिपि के रूप में उभरकर सामने आ सकी।
शारदा चरण मित्र (1848-1917 ई०) : कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायाधीश शारदा चरण मित्र ने अगस्त
1907 ई० में कलकत्ता में 'एक लिपि विस्तार परिषद' नामक संस्था की स्थापना की। मित्र ने इस संस्था की ओर से 'देवनागर'
(1907 ई०) पत्र प्रकाशित करके भारत की सभी भाषाओं के साहित्य को देवनागरी लिपि में प्रस्तुत करने का उपक्रम रचा।
इस पत्र में भिन्न-भिन्न भाषाओं के लेख देवनागरी लिपि में छपा करते थे। वे अखिल भारतीय लिपि के रूप में देवनागरी लिपि के प्रथम प्रचारक थे।
नेहरू रिपोर्ट (1928 ई०) की भाषा-लिपि संबंधी संस्तुति : नेहरू रिपोर्ट की भाषा-लिपि संबंधी संस्तुति में कहा गया :
'देवनागरी अथवा फारसी में लिखी जाने वाली हिन्दुस्तानी भारत की राजभाषा होगी' । स्पष्ट है कि हिन्दी भाषा की अधिकृत लिपि के मामले में
इस समय तक द्वैध या विवाद की स्थिति बनी हुई थी।
संविधान सभा में भाषा संबंधी विधेयक पारित (14 सितम्बर, 1949 ई०) : जब संविधान सभा ने 14 सितम्बर,
1949 ई० को भाषा संबंधी विधेयक पारित किया तब जाकर लिपि के मामले में विद्यमान द्वैध या विवाद अंतिम रूप से समाप्त हुआ।
अनुच्छेद 343(1) में स्पष्ट घोषणा की गई : 'संघ की राजभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी होगी' ।
इस प्रकार, 150 वर्षों (1800-1949 ई०) के लम्बे संघर्ष के बाद देवनागरी लिपि हिन्दी भाषा की एकमात्र और अधिकृत लिपि बन पाई।
देवनागरी लिपि का नामकरण
देवनागरी लिपि को 'लोक नागरी' एवं 'हिन्दी लिपि' भी कहा जाता है।
देवनागरी का नामकरण विवादास्पद है। ज्यादातर विद्वान गुजरात के नागर ब्राह्मणों से इसका संबंध जोड़ते हैं।
उनका मानना है कि गुजरात में सर्वप्रथम प्रचलित होने से वहाँ के पण्डित वर्ग अर्थात नागर ब्राह्मणों के नाम से इसे 'नागरी' कहा गया।
अपने अस्तित्व में आने के तुरंत बाद इसने देवभाषा संस्कृत को लिपिबद्ध किया इसलिए 'नागरी' में 'देव' शब्द जुड़ गया और बन गया 'देवनागरी'।
देवनागरी लिपि का स्वरूप
यह लिपि बायीं ओर से दायीं ओर लिखी जाती है। जबकि फारसी लिपि (उर्दू, अरबी, फारसी भाषा की लिपि) दायीं
ओर से बायीं ओर लिखी जाती है।
यह अक्षरात्मक लिपि (Syllabic script) है जबकि रोमन लिपि (अंग्रेजी भाषा की लिपि)
वर्णात्मक लिपि (Alphabetic script) है।
देवनागरी लिपि के गुण
(1) एक ध्वनि के लिए एक ही वर्ण संकेत
(2) एक वर्ण संकेत से अनिवार्यतः एक ही ध्वनि व्यक्त
(3) जो ध्वनि का नाम वही वर्ण का नाम
(4) मूक वर्ण नहीं
(5) जो बोला जाता है वही लिखा जाता है
(6) एक वर्ण में दूसरे वर्ण का भ्रम नहीं
(7) उच्चारण के सूक्ष्मतम भेद को भी प्रकट करने की क्षमता
(8) वर्णमाला ध्वनि वैज्ञानिक पद्धति के बिल्कुल अनुरूप
(9) प्रयोग बहुत व्यापक (संस्कृत, हिन्दी, मराठी, नेपाली की एकमात्र लिपि)
(10) भारत की अनेक लिपियों के निकट
देवनागरी लिपि के दोष
(1) कुल मिलाकर 403 टाइप होने के कारण टंकण, मुद्रण में कठिनाई
(2) शिरोरेखा का प्रयोग अनावश्यक अलंकरण के लिए
(3) समरूप वर्ण (ख में र व का, घ में ध का, म में भ का भ्रम होना)
(4) वर्णों के संयुक्त करने की कोई निश्चित व्यवस्था नहीं
(5) अनुस्वार एवं अनुनासिकता के प्रयोग में एकरूपता का अभाव
(6) त्वरापूर्ण लेखन नहीं क्योंकि लेखन में हाथ बार-बार उठाना पड़ता है।
(7) वर्णों के संयुक्तीकरण में र के प्रयोग को लेकर भ्रम की स्थिति
(10) इ की मात्रा ( ि) का लेखन वर्ण के पहले पर उच्चारण वर्ण के बाद
देवनागरी लिपि में किये गये सुधार
(1) बाल गंगाधर का 'तिलक फांट' (1904-26)
(2) सावरकर बंधुओं का 'अ की बारहखड़ी'
(3) श्याम सुन्दर दास का पंचमाक्षर के बदले अनुस्वार के प्रयोग का सुझाव
(4) गोरख प्रसाद का मात्राओं को व्यंजन के बाद दाहिने तरफ अलग रखने का सुझाव (जैसे, कुल- क ु ल)
(5) श्री निवास का महाप्राण वर्ण के लिए अल्पप्राण के नीचे s चिह्न लगाने का सुझाव
(6) हिन्दी साहित्य सम्मेलन का इन्दौर अधिवेशन और काका कालेलकर के संयोजकत्व में नागरी लिपि सुधार समिति का गठन (1935) और उसकी सिफारिशें
(7) काशी नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा अ की बारहखड़ी और श्री निवास के सुझाव को अस्वीकार करने का निर्णय (1945)
(8) उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा गठित आचार्य नरेन्द्र देव समिति का गठन (1947) और उसकी सिफारिशें
(9) शिक्षा मंत्रालय के देवनागरी लिपि संबंधी प्रकाशन- 'मानक देवनागरी वर्णमाला' (1966 ई०), 'हिन्दी वर्तनी का मानकीकरण'
(1967 ई०), 'देवनागरी लिपि तथा हिन्दी वर्तनी का मानकीकरण' (1983 ई०) आदि।
हिन्दी भाषा का मानकीकरण
मानक भाषा (Standard Language)
मानक का अभिप्राय है- आदर्श, श्रेष्ठ अथवा परिनिष्ठित। भाषा का जो रूप उस भाषा के प्रयोक्ताओं के अलावा अन्य भाषा-भाषियों के लिए आदर्श होता है,
जिसके माध्यम से वे उस भाषा को सीखते हैं, जिस भाषा-रूप का व्यवहार पत्राचार, शिक्षा, सरकारी काम-काज एवं सामाजिक-सांस्कृतिक आदान-प्रदान
में समान स्तर पर होता है, वह उस भाषा का मानक रूप कहलाता है।
मानक भाषा किसी देश अथवा राज्य की वह प्रतिनिधि तथा आदर्श भाषा होती है जिसका प्रयोग वहाँ के शिक्षित वर्ग द्वारा अपने सामाजिक,
सांस्कृतिक, साहित्यिक, व्यापारिक व वैज्ञानिक तथा प्रशासनिक कार्यों में किया जाता है।
मानकीकरण (मानक भाषा के विकास) के तीन सोपान : बोली-भाषा-मानक भाषा
किसी भाषा का बोल-चाल के स्तर से ऊपर उठकर मानक रूप ग्रहण कर लेना उसका मानकीकरण कहलाता है।
प्रथम सोपान : 'बोली' : पहले स्तर पर भाषा का मूल रूप एक सीमित क्षेत्र में आपसी बोलचाल के रूप में प्रयुक्त होनेवाली बोली का होता है,
जिसे स्थानीय, आंचलिक अथवा क्षेत्रीय बोली कहा जा सकता है। इसका शब्द भंडार सीमित होता है। कोई नियमित व्याकरण नहीं होता। इसे शिक्षा,
आधिकारिक कार्य-व्यवहार अथवा साहित्य का माध्यम नहीं बनाया जा सकता।
द्वितीय सोपान : 'भाषा' : वही बोली कुछ विशेष भौगोलिक, सामाजिक-सांस्कृतिक, राजनीतिक व प्रशासनिक कारणों से अपना क्षेत्र विस्तार कर लेती है,
उसका लिखित रूप विकसित होने लगता है और इसी कारण वह व्याकरणिक साँचे में ढलने लगती है, उसका पत्राचार, शिक्षा, व्यापार, प्रशासन आदि
में प्रयोग होने लगता है, तब वह बोली न रहकर 'भाषा' की संज्ञा प्राप्त कर लेती है।
तृतीय सोपान : 'मानक भाषा' : यह वह स्तर है जब भाषा के प्रयोग का क्षेत्र अत्यधिक विस्तृत हो जाता है। वह एक आदर्श रूप ग्रहण कर लेती है।
उसका परिनिष्ठित रूप होता है। उसकी अपनी शैक्षणिक, वाणिज्यिक, साहित्यिक, शास्त्रीय, तकनीकी एवं क़ानूनी शब्दावली होती है।
इसी स्थिति में पहुँचकर भाषा 'मानक भाषा' बन जाती है। उसी को 'शुद्ध', 'उच्च-स्तरीय', 'परिमार्जित' आदि भी कहा जाता है।
मानकीकरण का एक प्रमुख दोष यह है कि मानकीकरण करने से भाषा में स्थिरता आने लगती है जिससे भाषा की गति अवरुद्ध हो जाती है।
हिन्दी भाषा के मानकीकरण की दिशा में उठाये गए महत्वपूर्ण कदम
(1) राजा शिवप्रसाद 'सितारे-हिन्द' ने क ख ग ज फ पाँच अरबी-फारसी ध्वनियों के लिए चिह्नों के नीचे नुक्ता लगाने का रिवाज आरंभ किया।
(2) भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने 'हरिश्चन्द्र मैगजीन' के जरिये खड़ी बोली को व्यावहारिक रूप प्रदान करने का प्रयास किया।
(3) अयोध्या प्रसाद खत्री ने प्रचलित हिन्दी को 'ठेठ हिन्दी' की संज्ञा दी और ठेठ हिन्दी का प्रचार किया। उन्होंने खड़ी बोली को पद्य
की भाषा बनाने के लिए आंदोलन चलाया।
(4) हिन्दी भाषा के मानकीकरण की दृष्टि से द्विवेदी युग (1900-20) सर्वाधिक महत्वपूर्ण युग था। 'सरस्वती' पत्रिका के संपादक महावीर प्रसाद
द्विवेदी ने खड़ी बोली के मानकीकरण का सवाल सक्रिय रूप से और एक आंदोलन के रूप में उठाया। युग निर्माता द्विवेदीजी ने
'सरस्वती' पत्रिका के जरिये खड़ी बोली हिन्दी के प्रत्येक अंग को गढ़ने-संवारने का कार्य खुद तो बहुत लगन से किया ही,
साथ ही अन्य भाषा-साधकों को भी इस कार्य की ओर प्रवृत किया। द्विवेदीजी की प्रेरणा से कामता प्रसाद गुरु ने
'हिन्दी व्याकरण' के नाम से एक वृहद व्याकरण लिखा।
(5) छायावाद युग (1918-36) व छायावादोत्तर युग (1936 के बाद) में हिन्दी के मानकीकरण की दिशा में कोई आंदोलनात्मक
प्रयास तो नहीं हुआ, किन्तु भाषा का मानक रूप अपने-आप स्पष्ट होता चला गया।
(6) स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद (1947 के बाद) हिन्दी के मानकीकरण पर नये सिरे से विचार-विमर्श शुरू किया क्योंकि संविधान ने
इसे राजभाषा के पद पर प्रतिष्ठित किया जिससे हिन्दी पर बहुत बड़ा उत्तरदायित्व आ पड़ा। इस दिशा में दो संस्थाओं का विशेष
योगदान रहा- इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के माध्यम से 'भारतीय हिन्दी परिषद' का तथा शिक्षा मंत्रालय के
अधीनस्थ कार्यालय केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय का।
भारतीय हिन्दी परिषद : भाषा के सर्वागीण मानकीकरण का प्रश्न सबसे पहले 1950 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग
ने ही उठाया। डॉ० धीरेन्द्र वर्मा की अध्यक्षता में एक समिति गठित की गई जिसमें डॉ० हरदेव बाहरी, डॉ० ब्रजेश्वर शर्मा,
डॉ० माता प्रसाद गुप्त आदि सदस्य थे। धीरेन्द्र वर्मा ने 'देवनागरी लिपि चिह्नों में एकरूपता', हरदेव बाहरी ने
'वर्ण विन्यास की समस्या', ब्रजेश्वर शर्मा ने 'हिन्दी व्याकरण' तथा माता प्रसाद गुप्त ने 'हिन्दी शब्द-भंडार का
स्थरीकरण' विषय पर अपने प्रतिवेदन प्रस्तुत किए।
केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय : केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय ने लिपि के मानकीकरण पर अधिक ध्यान दिया और 'देवनागरी' लिपि
तथा हिन्दी वर्तनी का मानकीकरण (1983 ई०) का प्रकाशन किया।
विश्व हिन्दी सम्मेलन
उद्देश्य : UNO की भाषाओं में हिन्दी को स्थान दिलाना व हिन्दी का प्रचार-प्रसार करना।
क्रम
तिथि
आयोजन स्थल
पहला
10-14 जनवरी, 1975
नागपुर (भारत); अध्यक्ष-शिवसागर राम गुलाम (मारिशस के तत्कालीन राष्ट्रपति), उद्घाटन-इंदिरा गाँधी